त्रिवेंद्र सरकार में भ्रष्ट लोगों की दुकानें बंद, परेशान है जाएं तो जाएं कहां

(विकास गर्ग)

देहरादून। उत्तराखंड की त्रिवेन्द्र सरकार जब-जब कोई पड़ाव तय करती है तो उनके कामों की समीक्षा होती है। स्वस्थ लोकतंत्र के लिए यह जरूरी भी है। अपेक्षाओं के पैमाने पर उसके कामकाज का आंकलन भी होता है। सरकार को सचेत भी किया जाता है। चुन-चुन कर कमियां भी निकाली जाती हैं और सवाल भी उछाले जाते हैं। मगर ऐसा नहीं होता कि सरकार हमेशा गलत हो और उसकी मंशा संदिग्ध ही हो। सरकार बहुत नहीं तो कुछ अच्छा भी कर रही होती है। कहीं न कहीं बदलाव भी हो रहा होता है और वह महसूस भी किया जा रहा होता है।

मगर वह अनदेखा हो जाता है, उसकी कोई पड़ताल नहीं होती। अफसोस कि सरकार के कामों की निष्पक्ष समीक्षा करने के बजाय सिर्फ कमियां गिनाने पर अधिकांश लोगों का फोकस रहता हैं। हद तो तब हो जाती है जब सत्ताधारी पार्टी के विधायक भी विपक्ष की भाषा बोलने लगते है। हालांकि, सब जानते हैं कि दिल्ली दौड़ के पीछे “पावर गेम” ही एकमात्र वजह होती है। वरना हर नाराज विधायक अपने विधानसक्षा क्षेत्र के विकास का रोडमैप और वहां वर्ष वार हुए विकास कार्यों की समीक्षा लेकर पार्टी हाईकमान के पास जाता है। इस सिलसिले में बात चल पड़ी है तो आइए देखते हैं। मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र सिंह रावत को लेकर असल तश्वीर क्या है।

सत्ता के गलियारों में नहीं माफियाओं की एंट्री

याद करिए कुछ साल पहले का समय। देहरादून और दिल्ली से लेकर देश के तमाम बड़े शहरों में उत्तराखंड के एजेंट हुआ करते थे। पांच सितारा होटलों की लॉबी में कहीं उत्तराखंड का सौदा हो रहा होता था। कहीं जमीन की डील, कहीं शराब और खनन की सेटिंग, कहीं बड़े ठेकों का गणित तो कहीं सरकार की इमेज बाल्डिंग का सौदा हो रहा होता था। सत्ता के गलियारों में ब्रिफकेस वालों की धड़ल्ले से एंट्री होती थी, सरकार पर सिर्फ माफियो का दबदबा था। दखल भी थी। नीतियां शिक्षा की हो या शराब की हर क्षेत्र में माफिया केंद्र में था। मंत्री, विधायक, अफसर, हर कोई दोनो हाथों से लूट रहे थे। माफिया को राज्य में कौड़ियों के भाव जमीन देने का मसला हो या फिर पहाड़ पर शराब फैक्ट्रियां लगवाने का।

सोलर प्लांटों के आवंटन का घपला हो या खनन के पट्टों और स्टोन क्रेसरों का खेल। उत्तर प्रदेश राजकीय निर्माण निगम के घोटाले हों या ऊर्जा में नियुक्तियों और बिजली खरीद का घपला। हर बड़ा घपला-घोटाला पिछली सरकारों के कार्यकाल से जुड़ा है। यह सही है कि त्रिवेंद्र सरकार का अपेक्षाओं के पैमाने पर खरा उतरना अभी बाकी है। मगर सीएम त्रिवेंद्र को इस बात का श्रेय तो दिया जाना ही चहिए कि आज हालात तीन साल पुराने जैसे नहीं हैं। कमियां बहुत हो सकती है, निसंदेह हैं भी, मगर अराजकता उतनी नहीं है। माफिया कोई भी हो, किसी भी क्षेत्र का हो आज सत्ता के गलियारों में उसकी एंट्री नहीं है। कम से कम सचिवालय का फोर्थ फ्लोर तो माफिया मुक्त हुआ ही है।

तीन साल में किसी भी घोटाले का नहीं लगा आरोप

नीतियां अभी भले ही राज्य के अनुकूल न बन पा रही हों, नौकरशाहों पर निर्भरता ज्यादा हो मगर अब नीतियां माफिया के इशारे पर नहीं बनतीं। त्रिवेन्द्र सरकार पर सवाल तो उठाए जा सकते हैं। बहुत से मुद्दे भी हैं लेकिन यह कम बड़ी बात नहीं कि तीन साल में एक भी बड़े घोटाले का आरोप सरकार पर नहीं है। सचिवालय के चतुर्थ तल पर अब बड़ी डील नहीं होती। यह ईमानदारी का प्रमाण कतई नहीं मगर यह बदलाव का संकेत जरूर है। सीधे शब्दों में कहा जाए तो त्रिवेंद्र शासन में सालों से चल रही तमाम पॉवर ब्रोकरों की दुकानें ठप हैं। आज भले ही महसूस न हो रहा हो लेकिन यह याद रखना चाहिए कि एक वक्त वह भी था जब जिलों में डीएम और कप्तान बनने की बोली लगने लगी थी।

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सत्ता के दरबार में मोटी थैलियां पेशगी देकर अहम पदों पर बैठे अफर महज कलेक्शन एजेंट बने हुए थे। शिक्षा और स्वास्थ्य महकमा हो या फिर पीडब्लूडी जैसे इंजीनियरिंग महकमा हर जगह पोस्टिंग एक उद्योग बन चुकी थी। आज हालात काफी बदले हुए हैं। अपवाद स्वरूप कहीं चोरी चुपके पोस्टिंगों में लेन-देन चल रहा हो, लेकिन जिलों में डीएम, कप्तान व ऑफीसर्स की तैनाती का मानक साफ छवि है। उत्तराखंड जैसा छोटा राज्य जो भ्रष्टाचार के रोग से खोखला हो चुका है। वहां यह भी बहुत अहम है कि छोटे-छोटे कामों के लिए सुविधा शुल्क अब रंगदारी के तौर पर नहीं लिया जाता। इसका श्रेय भी आखिर सरकार को ही तो जाता है।

शिकायतों की नहीं थी सुनवाई, जारी हुई सीएम हेल्पलाइन

अपेक्षा के मुताबिक सरकार रोजगार नहीं दे पा रही है। यह सही है लेकिन यह भी तो सच है कि एक-आध मामलों को छोड़कर तीन साल में चोर दरवाजे नियुक्तियों पर प्रभावी अंकुश दिखा है। पहले तो शिकायत की सुनवाई ही नहीं थी, आज सीएम हेल्पलाइन पर ही सही कम से कम आप अपनी शिकायत तो दर्ज कर सकते है। आमजन की शिकायतों का निवारण भी हुआ है।

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