(मनीष वर्मा)
देहरादून । आजकल सभी एक नए विषय को लेकर चर्चा कर रहे है और वो है पहाड़ में पूर्व में लोकसभा,विधान सभा और नगर निगम चुनाव में हाशिये पर रहीआम आदमी पार्टी’ ,जो की पुनः विधान सभा चुनाव में दस्तक देने की तैयारी कर रही है
चर्चा करें उत्तराखंड की राजनीति की तो यहां पर राजनीतिक रूप से सक्रिय रही प्रमुख पार्टियों में बहुजन समाज पार्टी (बसपा) जिसकी एक जमाने मे 8 सीट आईं थी जो बाद में 3 व फिर शून्य पर सिमट कर रह गयी समाजवादी पार्टी (सपा) कोई सीट हासिल नही कर पाई तथा उत्तराखंड क्रांति दल (उक्रांद) तत्कालीन एकता के चलते 4 सीट ले आई थी पर बड़े दलों के राजीनीतिक के धुरंधरों ने इसमे ऐसी फूट डाली और सेंध लगाई की उक्रांद बंट गयी और समाप्त हो गयी ।
तत्पश्चात भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस यहां सबसे बड़े दल के रूप में उभरी थी बावजूद इस तथ्य के कि उत्तर प्रदेश में उसकी स्थिति बद से बदतर होती जा रही थी। यहां तक कि तत्कालीन चुनाव में तीन निर्दलीय भी जीते थे। वर्ष 2007 आते आते उक्रांद की सीटें चार से घट कर तीन रह गई जबकि बसपा सात से बढ़ कर आठ जा पहुंची। भाजपा भले ही सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी मगर अपने दम पर स्पष्ट बहुमत लाने में विफल रही और सरकार बनाने को उसे उक्रांद के समर्थन का सहारा लेना पड़ा था। 2012 तक आते आते बसपा का प्रदर्शन भी स्पष्ट रूप से कमजोर होता गया था वह वह आठ से घट कर सीधे तीन पर रह गई। बसपा का केंद्रीय नेतृत्व यहां पर पार्टी के भीतर स्थिरता लाने में विफल रहा और अंदरूनी झगड़ों के चलते कई नेताओं को पार्टी से निकाल बाहर किया गया तो कई नेताओं ने खुद ही कांग्रेस का दामन थाम लिया। उत्तराखण्ड क्रान्ति दल का तो मात्र एक ही विधायक रह गया जो कांग्रेस की सरकार में शामिल हो गया था। जाहिर है, उत्तराखंड के लोगों की सोच राष्ट्रीय स्वरूप की होने के कारण यहां पर कोई क्षेत्रीय दल स्थायी रूप से अपनी जड़ें गहरी नहीं कर पाया और राष्ट्रीय दल ही मजबूत रहे।
2017 के चुनाव में तो भाजपा ने हरिद्वार व उधमसिंह नगर में भी अपनी पकड़ मजबूत की और बसपा तथा उक्रांद का बिल्कुल सफाया हो गया।
अब जब आप ने राज्य की आगामी विधानसभा चुनाव में सभी सीटों पर चुनाव लड़ने का ऐलान किया है तो देखना दिलचस्प रहेगा कि इतनी सीटों पर वह मजबूत प्रत्याशी कहां से लाएगी। जब तक आप के पास मजबूत प्रत्याशी नहीं होंगे तब तक राज्य में भाजपा या कांग्रेस के सामने कड़ी चुनौती पेश करना उसके लिए बहुत ही दुष्कर कार्य साबित होगा। तथ्य तो यही है कि आप के पास केजरीवाल को छोड़कर राष्ट्रीय पहचान वाला कोई चेहरा ही नहीं है और केजरीवाल यहां आकर खुद तो चुनाव लड़ने वाले नहीं। शुरुआती दौर में आप के पास राष्ट्रीय स्तर पर कुछ पहचाने व सम्मानित चेहरे जरूर थे पर वे केजरीवाल से मतभेदों के चलते बाहर कर दिए गए थे।
उत्तराखंड में जब तक आप पार्टी कम से कम एक बड़ा व जनमान्य चेहरा तथा विधानसभा स्तर पर कुछ अन्य बड़े चेहरे सामने नहीं लाती तब तक उसकी चुनौती को गंभीर नहीं माना जा सकता।
वर्ष 2017 के चुनाव से पहले तक विधानसभा चुनावों में भाजपा व कांग्रेस का मतों का अंतर दो तीन फीसदी से अधिक नहीं रहता था। पर 46 से भी अधिक प्रतिशत मत लाकर वर्ष 2017 के चुनाव में भाजपा ने अपने व कांग्रेस के बीच लगभग 13-14 फीसदी का अंतर कर लिया था। वर्ष 2022 के चुनाव में आप का प्रयास इन 13-14 फीसदी मतों को हासिल करना रहेगा। इससे हो सकता है कि दो तीन सीटों पर जीत हासिल करने में वह कामयाब रहे। इससे भाजपा से अधिक नुकसान कांग्रेस को होने की संभावना अधिक है क्योंकि भाजपा का वोट बैंक पक्का है और त्रिवेंन्द्र सिंह रावत अपनी ईमानदार व संवेदन शील छवि के चलते दुबारा सरकार बनाने को प्रतिबद्ध व मुखर है।
हरिद्वार व उधमसिंह नगर के मैदानी क्षेत्र में जहां कभी बसपा मजबूत हुआ करती थी, आप के लिए सेंध मारना अपेक्षाकृत आसान है मगर बड़ी चुनौती यह है कि बसपा का वोट बैंक दलित-मुसलिम मतदाता था। और दिल्ली में भी आप मुस्लिम को साथ जोड़ने पर ही कामयाब हो पाई यही कारण है कि अरविंद केजरीवाल पर बड़े बड़े आरोप लगे फिर भी वो चुप रहे व सरकार बना गए
उत्तराखंड में हाल में ही कई कार्यकर्ता व पदाधिकारी आप पार्टी। छोड़ गए ।
आप विधायको पर दिल्ली में जो आरोप लगे वो जनता कर सामने ही है ।
दिल्ली में बिजली को निजी हाथों में बेच कर CAG ऑडिट न करवाने का आरोप व 10000 करोड़ घोटाले का आरोप आप पार्टी पर लगा और मुफ्त बिजली के नाम पर दिल्ली में देश मे सबसे महंगी बिजली रुपये 8.45 की दर से दी जा रही है यानी एक से ले लो और दूसरे को दे दो ।
बसपा का गठजोड़ भाजपा द्वारा में पिछड़ा – दलित वोट बैंक में खासी सेंध मार देने से कमजोर पड़ा है और इसके चलते भी बसपा यहां पर कमजोर पड़ी है। पिछली बार मुसलिम वोट कांग्रेस ले गई थी जबकि बड़ी संख्या में दलित वोट भाजपा की झोली में गिरा था वही 2017 में भाजपा ने सारे वोट बैंक पर कब्जा कर लिया था और TSR यानी त्रिवेंद्र सिंह रावत स्पष्ट बहुमत से सरकार बना गए ।
कांग्रेस के पास भी यों तो सर्वमान्य बड़े चेहरों की अब भारी कमी है और 5 ग्रुपो के चलते राह भी मुश्किल है पर 5 ग्रुपो में कुछ तो पहले चुनाव लड़ चुके या तटस्थ बैठे कुछ नेता है पर आप पार्टी के पास इस तरह का अभाव भी दिखता है।और आप के पास तो उत्तराखंड में नेता है ही नहीं और जो दूसरी पार्टी से आने की सोच रहे हे वो अपनी डूबती नैय्या बचाने के चक्कर में है पर जिन्हे पहले ही जनता ने निकाल दिया हो वो दूसरी पार्टी में भी क्या पहचान बना पाएंगे यह सोचने का विषय है क्यूंकि पहाड़ की जनता अब समजाहदार हो चुकी हे
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