(संवाददाता NewsExpress18)
सबसे बड़े समाजवादी राजा हुए हैं महाराजा अग्रसेन जी
परम् प्रतापी, न्याय प्रिय, समाजवाद प्रणेता, अग्रवंश प्रवर्त्तक भगवान श्री श्री 1008
महाराजा अग्रसेन जी को कोटि कोटि प्रणाम एवं सम्पूर्ण अग्रसमाज का अभिवन्दन।
दिल्ली। अग्रवाल व वैश्य समाज के बाणी युग प्रवर्त्तक महाराजा अग्रसेन जी दुनिया के सबसे बड़े व पहले समाजवादी राजा हुए हैं जिन्होंने अपने राज्य में सभी को बराबर के अधिकार दिये तथा उनके राज्य में न कोई बड़ा हो और न ही कोई छोटा, सभी बराबर हों इसके लिए उन्होंने अपने राज्य में यह प्रथा आरम्भ की कि जो भी कोई परिवार उनके राज्य अग्रेयगण वर्तमान नाम अग्रोहा में रहने के लिए आये उसे सभी परिवार एक-एक ईंट एवं एक-एक रुपया देकर उसकी सहायता करें। उनके राज्य में लगभग एक लाख परिवार रहते थे इससे उस राज्य में आने वाले के पास एक लाख ईंट एवं एक लाख रुपया इकट्ठा हो जाता था जिससे वह परिवार अपना घर बना सकता था तथा व्यवसाय आरम्भ कर सकता था इस रीत की सभी परिवार अग्रोहा निवासी पूरी प्रकार निभाते थे।
महाराजा अग्रसेन जी ने अपने राज्य आग्रेय में सभी को ‘जीओ और जीने दो ‘ का संदेश दिया ‘सर्वे भवंतु सुखिनय, सर्वे संतु निरामया ‘ के सिद्धांत को चरितार्थ करते हुए चरों ओर फैले घोर अंधकार में समाजवाद की ऐसी मिसाल कायम की जिसकी प्रकाश किरणों ने पूरे विश्व में उजियारा कर दिया।
लगभग 5143 वर्ष पूर्व एक महान विभूति ने जन्म लिया जिन्होंने जर्जर हो चुकी एकतंत्रीय प्रणाली को समाप्त कर एक ऐसी अनोखी एवं अनुकरणीय लोकतान्त्रिक प्रणाली का श्रीगणेश किया और सभी वर्गों को संगठित कर युग प्रवर्त्तक अहिंसा के पुजारी, शांति दूत, अग्रवाल समाज के संस्थापक के रूप में महाराजा अग्रसेन के नाम से प्रसिद्ध हुए।
उस समय देश में राजवंशों की भरमार थी और निराशा का घोर अंधकार चारों ओर छाया हुआ था, महाराजा अग्रसेन ने समाजवाद तथा आदर्श लोकतंत्र की प्रकाश रश्मियां बिखेर कर जग में उजियारा किया।
महाराजा अग्रसेन जी का जन्म इछवांकू कुल में सरस्वती, इष्टवती और घग्घर नदी के संगम पर सरस्वती के पावन किनारे बसे प्रताप नगर में सूर्यवंशी भगवान राम जी की 34 वीं पीढ़ी के राजा वल्ल्भसेन जी एवं उनकी पत्नी वैदर्भीसुता महारानी भगवती की कोख से द्वापरयुग की अंतिम बेला में आज से लगभग 5143 वर्ष पहले हुआ था। यह वही वंश था जिसमें महाराजा मानधाता, दिलीप, राजा रघु,दशरथ एवं भगवान श्री राम जैसे यशस्वी राजा हुए थे, अश्विन शुक्ल पक्ष प्रतिपदा अर्थात नवरात्री के प्रथम दिवस रविवार को इनके जन्म लेते ही कुल पुरोहित जी ने घोषणा की कि यह बालक बहुत बड़ा शासक बन कर परिवार की ख्याति को चार चाँद लगाएगा जो भविष्य में जाकर सही साबित हुई।
जन्म से ही राजसी लाढ़ प्यार से हुए लालन पालन ने अग्रसेन जी को तेजस्वी और शूरवीर बनाने में कोई कस्र नहीं छोड़ी। महाराजा अग्रसेन जी की शिक्षा-दीक्षा तांडव ऋषि के आश्रम जो उज्जैन के आगर-नगर में स्थित है हुई। 14 वर्ष की आयु में वह शस्त्र-शास्त्र में पारंगत होकर आश्रम से वापस राजमहल आये। युवा होते ही इन्होंने पिता जी के शासकीय कामकाज में हाथ बंटाना शुरू कर दिया। दूरदर्शी होने का पूरा-पूरा लाभ राजकीय कामकाज कुशलतापूर्वक करने में मिला जिससे चारों ओर इनके राज्य की प्रशंसा होने लगी तथा इनकी दूरदर्शी नीतियों से दुश्मन भी दोस्त बन गए।
इसी बीच राजा वल्ल्भसेन जी को पांडवों की ओर से महाभारत युद्ध में भाग लेने का निमंत्रण प्राप्त हुआ। राजा वल्ल्भसेन जी पांडवों की ओर से महाभारत युद्ध में भाग लेने के लिए चल पड़े। पिता की रक्षा के लिए अग्रसेन जी भी उनके साथ हो लिए। राजा वल्ल्भसेन जी ने जाते जाते राज्य की बागडोर अपने छोटे भाई कुन्दसेन को सौंप दी थी। कुन्दसेन और उनका बेटा दोनों ही अय्याश और गलत आचरण करने वाले थे। महाभारत युद्ध में नौ दिन बाद राजा वल्ल्भसेन जी भीष्म पितामह के बाणों से वीरगति को प्राप्त हुए। पिता की मृत्यु पर अग्रसेन जी बहुत व्याकुल हुए, परन्तु निराश नहीं हुए।
तब भगवान कृष्ण जी ने उन्हें संसार के नश्वर होने का ज्ञान दिया। अग्रसेन जी ने पुरे 18 दिन तक पांडवों का युद्ध में साथ दिया। महाभारत युद्ध समाप्त होने के बाद विदाई के समय जब युधिष्ठर अग्रसेन जी का धन्यवाद कर रहे थे तब भगवान कृष्ण जी ने कहा – हे युधिष्ठर अग्रसेन जी का अवतार महाभारत युद्ध के पश्चात द्वापर युग समाप्त हो जायगा और कलयुग का आगमन होगा। कलयुग में धर्म की स्थापना के लिए अग्रसेन जी ने अवतार लिया है।
पिता की मृत्यु एवं महाभारत युद्ध के बाद जब महाराजा अग्रसेन जी वापस प्रताप नगर पहुंचे तो यहां का माहौल ही बदला हुआ था। सेनापति से लेकर तमाम दरबारी अधिकारी भ्रष्ट और अय्याश हो चुके थे। कुन्दसेन ने सेनापति को आदेश देकर अग्रसेन जी को उनके महल में बंदी बना दिया। अग्रसेन जी की माता जी भी बुरे दिन काट रही थी। विलाप करती रहती थी। अग्रसेन जी बहुत व्याकुल हुए। ऐसी परिस्थितियों में ईश्वर ही सहारा होता है। उन्होंने ईश्वर से सहायता मांगी और अचानक सुमंत सामने आया। सुमंत वल्ल्भसेन के दौर का प्रशासनिक अधिकारी था। उसने अपनी जान की परवाह न करते हुए अग्रसेन जी को मुक्त करा लिया।
अग्रसेन जी छिपते- छिपाते बचते- बचाते किसी प्रकार गर्ग मुनि जी के आश्रम में पहुंचे। गर्ग मुनि का आश्रम इष्टवती नदी के दूसरे किनारे पर था। गर्ग मुनि जी ने उनका स्वागत किया, उन्हें बहुत सांत्वना दी। गर्ग मुनि ने उन्हें महालक्ष्मी जी की उपासना करने को कहा। मुनि जी के कहने पर अग्रसेन जी ने महालक्ष्मी जी की मूर्ति स्थापित करके आराधना आरम्भ की। 1100 दिवस की तपस्या के बाद महालक्ष्मी जी उनकी श्रद्धा से प्रसन्न होकर ठीक दीवाली की रात को महालक्ष्मी प्रकट हुईं और दर्शन देकर वर मांगने को कहा। महालक्ष्मी जी ने उनकी सभी मनोकामनाएं पूरी होने का वरदान दिया। अग्रसेन जी ने महालक्ष्मी जी से यह निवेदन किया कि वह सदा उनके कुल में निवास रखे जिस पर महालक्ष्मी जी ने कहा कि जब तक तेरे कुल के लोग दान-पुण्य तथा गरीबों की सहायता करते रहेंगे मैं तेरे कुल में प्रतिष्ठित रहूंगी।
महालक्ष्मी जी ने अग्रसेन जी को यह राज भी बताया कि उन्होंने जिस स्थान पर बैठकर उनकी पूजा की है उस जगह धरती में अपार सोना गढ़ा है, यह वह बचा हुआ सोना है जो सौ अश्वमेघ यज्ञ करने के बाद राजा मरुत के पास बचा था जिसे राजा मरुत ने यहां दबा दिया था। महालक्ष्मी ने ही अग्रसेन जी को बताया कि धरती से प्राप्त धन का मालिक राजा ही होता है। लक्ष्मी जी ने अग्रसेन जी को निर्देश दिया कि इस धन से इस बीहड़ में नए राज्य की स्थापना करो। महाराजा अग्रसेन जी ने अग्रोहा को राज्य बनाने का निश्चय इसलिए भी किया कि उन्होंने यहां पर शेर एवं भेड़िया के बच्चों को एक साथ खेलते हुए भी यहां देखा।
अग्रसेन जी अग्रोहा की धरती पर नये नगर की स्थापना में लग गये। गर्ग मुनि के शिष्यों ने उनकी पूरी मदद की। उबड़ खाबड़ धरती को समतल करके सड़कें, गलियां,पेड़, तालाब, बाग-बगीचे, महल एवं अन्य भवन, मंदिर, धर्मशालायें बनाई गई इस प्रकार यहां पर सुख, शांति और समृद्धि की बयार बहने लगी। आनंदमयी वातावरण का यह नगर अग्रनगर कहलाया। अग्रनगर तैयार होने के बाद अग्रसेन जी ने अपने राज्य के विस्तार की सोची। परन्तु गर्ग मुनि ने उन्हें विवाह करने की सलाह दी। उन्होंने ही कहा कि वह नागकन्या माधवी से विवाह करें क्योंकि महाराजा महोधर से संबंध होने के बाद उनकी शक्ति बढ़ेगी। गर्ग मुनि की बात मानकर अग्रसेन जी महाराजा महोधर एवं महारानी नागेन्द्री की पुत्री राजकुमारी माधवी के स्वयंबर में सम्मिलित होने के लिए असम की ओर चल पड़े। वह स्वयंबर में पहुंचे। सारी शर्तें पूरी करने और वाद-विवाद में जीतने के बाद उनका विवाह नागकन्या माधवी से हो गया जिससे दो संस्कृतियों का मिलन हुआ तथा इनके राज्य को और अधिक शक्ति मिली। नागराजा महोधर ने इस ख़ुशी में एक नया नगर अगरतल्ला बसाया। नागकन्या माधवी से विवाह के पश्चात अग्रसेन जी ने अपने राज्य में 18 राज्यों को मिलाया। आज भी यह राज्य जिलों के रूप में विध्यमान हैं इनमें दिल्ली समेत उत्तर प्रदेश, हरियाणा, पंजाब व राजस्थान के जिले हैं। ये जिले हिसार, तोसाम, सिरसा,नारनौल, रोहतक, जीन्द, पानीपत, कैथल, जगाधरी, नाभा, अलवर, सीकर, झुंझुनू, चूरू, भिवानी, फतेहाबाद, जयपुर, और आगरा। अब अग्रनगर एक शक्तिशाली आग्रेय गणराज्य के रूप में स्थापित हो गया था और अग्रसेन जी महाराजा के रूप में प्रतिष्ठित हो गए थे। अन्य राजा भी अग्रसेन जी की कर्मठता की प्रशंसा करते थे। अपने पिता राजा वल्ल्भसेन जी को लौहगढ़ जाकर पिंड दान किया।
अग्रसेन जी के 18 पुत्र तथा एक पुत्री हुई जिनके नाम विभु, विक्रम,अजै, विजय, अनल, नीरज,अम्र, नगेन्द्र, सुरेश, श्रीमंत, सोम, धरणीधर, अतुल, अशोक, सुदर्शन, सिद्धार्थ, गनेश्वर तथा लोकपति थे और पुत्री का नाम ईश्वरी था जिसका विवाह कशी नरेश महाराजा महेश के साथ हुआ एवं उनके 18 पुत्रो का विवाह नागराज वासुकी की पुत्रियों के साथ हुआ। महाराजा अग्रसेन जी ने गौड़ ब्राह्मण को अपना पुरोहित बनाया। गौड़ पुरोहित बहुत बुद्धिमान था। उसे वेदों का भी बहुत ज्ञान था। पुरोहित के सहयोग से महाराजा अग्रसेन की कीर्ति में बहुत वृद्धि हुई। अग्रवाल समाज के लोग आज भी गौड़ को ह अपना पुरोहित मानते हैं।
महाराजा अग्रसेन के राज में 18 गण थे, उनके गणों के प्रतिनिधियों एवं पुत्रों की सहायता से 18 यज्ञ किये। अग्रसेन जी अहिंसावादी थे उस समय यज्ञ में घोड़े की बलि दी जाती थी 17 यज्ञ बलि के साथ ही सम्पन्न हुए परन्तु 18 वें यज्ञ में अग्रसेन जी विचलित हो गए और उन्होंने बलि देने से इंकार कर दिया और वह क्षत्रिय से वैश्य बन गए और उन्होंने राज्य में पशु बलि पर पाबंदी लगा दी और कहा कि उनके राज्य में हिंसा के लिए कोई जगह नहीं। पशु बलि के स्थान पर नारियल से पूजा करने का आदेश दिया और तभी से अग्रवंश में यज्ञ में नारियल की पूजा अर्चना करके आहुति दी जाती है। जिसके कारण ही आज भी देश में 10 करोड़ के अग्रवाल समाज में अधिकतर लोग शाकाहारी, अहिंसक एवं धर्म परायण और राष्ट्र भक्त हैं।
महाराजा अग्रसेन जी आदर्श पूजापालक शासक थे तथा सभी प्रतिनिधियों की सहायता से शासन का संचालन लोकतांत्रिक ढंग से करते थे। महाराजा अग्रसेन जी ने अगर समाज को 18 गोत्रों में बांटा तथा उन गोत्रों के नाम 18 यज्ञों के पुरोहित-ऋषिओं के नाम पर रखा।
इतिहास के अनुसार गर्ग ऋषि के नाम पर गर्ग, गोभिल पर गोयल, कश्यप पर कुछल, कौशिक पर कांसल, विशिष्ट पर बिंदल, धौम्य पर धारण, शाण्डिल्य पर सिंघल, जैमिनी पर जिंदल, मैत्रेय पर मित्तल, तांडव पर तिंगल,तैतिरीय पर तायल, वत्स पर बांसल, धन्यास पर भन्दल, नागेंद्र पर नांगल, मांडव्य पर मंगला, ओर्व पर ऐरन, मुदगल पर मधुकुल,तथा गौतम पर गोइन आधी हैं। उन्होंने सभी को अपनी पुत्र- पुत्रियों के विवाह इन गोत्रो में अपना गोत्र छोड़ कर करने के लिए कहा था ताकि रक्त की शुद्धता बरकरार रहेठा हमारी संस्कृति मजबूत हो।
उन्होंने वैश्य अग्र समाज को अहिंसावादी बनने, गाय, गरीब की रक्षा करने,व्यापर में शुद्धता तथा ईमानदारी रखने, धर्म में आस्था, खाने पीने में शुद्धता, बुरे कार्यों से दूर रहने और उनका त्याग, आर्थिक तौर पर कमजोर वर्ग की सहायता, ज्ञान प्रति श्रद्धा, अतिथि सत्कार, सनातन धर्म तथा संस्कृति के आदर्शों का पालन, सरल व सदा जीवन, साहस, आत्म बल तथा ढृढ़ संकल्प शक्ति एवं भाई चारक एकता के लिए भी रास्ता दिखाया।
महाराजा अग्रसेन जी ने 108 वर्षों तक कुशलता पूर्वक शासन करने के पश्चात अपने बड़े पुत्र विभु को राज्य भार सौंपने के बाद वानप्रस्थ आश्रम चले गये तब इस अवसर पर माता महालक्ष्मी जी ने अग्रसेन जी से विदा लेनी चाही तो अग्रसेन जी ने माता को निवेदन किया कि वह अपनी पत्नी के साथ धर्म नदियों में स्नान करना चाहते हैं उन के वापस आने तक वह अगर कुल में ही निवास करें।
इस प्रकार वह धर्म स्नान करने के लिए जंगलों में प्रभु की आराधना करने चले गए तथा वापिस नहीं आए। यह थी कुर्बानी अगर समाज के बानी महाराजा अग्रसेन जी की और 193 वर्ष की आयु में महाराजा अग्रसेन जी ब्रह्मलीन हुए।
महाराजा अग्रसेन जी के वंशज आज अग्रवाल के नाम से पूरे विश्व में जाने जाते हैं तथा इस समाज की की विभूतियों ने अपने कार्यों से अग्रवाल समाज का नाम रौशन किया है ।
अग्रोहा कैसे जाए
अग्रोहा हिसार (हरियाणा) से 22 किलोमीटर दिल्ली से सिरसा जाने वाले महाराजा अग्रसेन राष्ट्रिय राजमार्ग नं. 10 पर स्थित है। दिल्ली से इसकी दूरी 190 किलोमीटर है। यह बस मार्ग से सम्पूर्ण देश से जुड़ा है ।
आजकल मोटर यातायात इस मार्ग पर चौबीसों घंटे बना रहता है।
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