ब्रज की लठ्ठ मार होली को फेल कर देती हैं यहा का लठ्ठ मार दीवारी नृत्य


(विनोद मिश्रा)
बांदा।बरसाने की लट्ठमार होली तो आपने देखी और सुनी होगी, लेकिन आज उत्तरप्रदेश के बुंदेलखंड इलाके की लट्ठ मार दीवाली हम आपको दिखाते हैं जो काफी रोमांचक होती है। बुंदलखंड के जनपद बांदा, हमीरपुर, जालौन, महोबा में परंपरागत “दिवारी नृत्य” की धूम मची हुई है जिसमें ढोलक की थाप पर थिरकते जिस्म के साथ लाठियों का अचूक वार करते हुए युद्ध कला को दर्शाने वाले नृत्य को देख कर लोग दांतों तले अंगुलियाँ दबाने पर मजबूर हो जाते हैं। दिवारी नृत्य करते युवाओं के पैंतरे देख कर ऐसा लगता है मानों वो दीपावली मनाने नही बल्कि युद्ध का मैदान जीतने निकले हों।


बुंदेलखंड के जनपद बांदा,महोबा, हमीरपुर और में होने वाला नृत्य युद्ध सा प्रतीत होता है। दिवारी नृत्य देखने वालों को लगता है जैसे कोई जंग का मैदान हो। हांथों में लाठियाँ, रंगीन नेकर के ऊपर कमर में फूलों की झालर, पैरों में घुँघरू बंधे जोश से भरे यह नौजवान बुन्देलखंडी नृत्य दिवारी खेलते हुए परंपरागत ढंग से दीपोत्सव मनाते हैं। इस दिवारी नृत्य में लट्ठ कला का बेहतरीन नमूना पेश किया जाता है। वीर रस से भरे इस नृत्य को देखकर लोगों का खून उबाल मारने लगता है और जोश में भर कर बच्चों से लेकर बूढ़े तक थिरकने पर मजबूर हो जाते हैं।
यह नृत्य भगवान् श्री कृष्ण के समय की कला है। बुंदेलखंड में होने वाले पर्व वीरता से लवरेज होते हैं।

खासकर महोबा जनपद में वीर आल्हा उदल की वीरता की झलक यहाँ तीज त्योहारों में भी दिखाई पड़ती है। दीपावली पर्व में भी दीवारी नृत्य इसी वीरता की झलक है। मान्यता है कि भगवान कृष्ण ने जब कंस का वध किया था उसी उत्साह में बुंदेलखंड में दीवारी नृत्य खेली गई थी जो आज भी बदस्तूर जारी है। बुंदेलखंड के इलाकों में ये दीवारी नृत्य टोलियों में होता है। अपने-अपने गांवों की टोलिया बनाकर सभी वर्गों के लोग आत्मरक्षा वाली इस कला का प्रदर्शन करते हैं। आपस में लाठिया एक दूसरे को मारते और वचाव करते हैं। बुन्देलखण्ड का यह परंपरागत लोक न्रत्य दीवारी जिसने ना केवल उत्तर प्रदेश में बल्की पूरे देश में अपनी धूम मचा रखी है इसमें जिमनास्टिक की तरह करतब वाकई अदभुत है।

अलग तरह से बज रही ढोलक की थाप खुद ब खुद लोगों को थिरकने के लिये मजबूर कर देती है। यह परंपरा हर गाँव और शहर में उत्साह पूर्वक देखी जाती है। लाल हरी नीली पीली भेष भूसा और मज़बूत लाठी जब दीवारी लोक नृत्य खेलने वालो के हाथ आती है तब यह बुन्देली सभ्यता, परंपरा को और मजबूती से पेश करती है।
इस दीवारी कला को बड़े, बूढ़े और बच्चे सभी जानते मानते हैं और इसमें बढ़ चढ कर भाग लेते हैं।

यह दीवारी न्रत्य बुन्देलखण्ड के जनपद बाँदा, चित्रकूट, जालौन, झाँसी, ललितपुर, हमीरपुर और महोबा के हर गली चौराहों में देखने को मिल जाता है। बुंदेलखंड का दिवाली लोक नृत्य गोवधन पर्वत से भी सम्बन्ध रखता है। द्वापर युग में श्री कृष्ण ने जब गोवर्धन पर्वत को अपनी उंगली पर उठा कर ब्रजवासियों को इन्द्र के प्रकोप से बचाया था तब ब्रजवासियों ने खुश हो कर यह दिवारी नृत्य कर श्री कृष्ण की इन्द्र पर विजय का जश्न मनाया था तथा ब्रज के ग्वालावाले ने इसे दुश्मन को परास्त करने की सबसे अच्छी कला माना था। इसी कारण इन्द्र को श्री कृष्ण की लीला को देख कर परास्त होना पड़ा।


बुंदेलखंड में धनतेरस से लेकर दीपावली की दूज तक गाँव-गाँव में दिवारी नृत्य खेलते नौजवानों की टोलियाँ घूमती रहती हैं। दिवारी देखने के लिए हजारों की भीड़ जुटती है। दिवारी खेलने वाले लोग इस कला को श्री कृष्ण द्वारा ग्वालों को सिखाई गई आत्म रक्षा की कला मानते हैं। बुंदेलखंड के हर त्योहारों में वीरता और बहादुरी दर्शाने की पुरानी रवायत है, तभी तो रौशनी के पर्व में भी लाठी डंडों से युद्ध कला को दर्शाते हुए दीपोत्सव मानाने की यह अनूठी परम्परा सिर्फ़ इसी इलाके की दीपावली में ही देखने को मिलती है। खास बात यह है कि इस दीवारी न्रत्य में सिर्फ हिन्दू ही नहीं बल्की मुस्लिम भी बढ़ चढ कर भाग लेते हैं।

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